Tuesday, February 12, 2013

शामों के एकाकी चाँद के साथ-साथ मुझमें घुलतीं अकेलेपन की गिरहों में तेरी यादें इस कदर बंध जायेंगी किसे पता था,,ऐसी ही एक शाम में अपने एकाकीपन से जूझते हुए,,बड़ी शिद्दत से दिल कर रहा है कि कोई जोर से डाट दे,,,,,,,,,,,,,, और मेरी खामोश आवारगी का शीशा झन्न की आवाज के साथ टूट जाए .......... हाँ बस ऐसे ही शुरू होता था दिन ! हाँ बस ऐसे ही ख़त्म होती है रात !! कोहरे वाली सुबहें ही थीं ना अक्सर यूँ ही पढ़ते - पढ़ते नजर पड़ जाती थी सामने के बारजे पर,,याद है मुझे उन घनी धुंध वाली सुबहों में भी खिड़की पे एक चाँद रक्खा रहता था ,, महसूस कीं थी मैंने उन सर्द रातों में भी कुछ गर्मी केवल उन्ही खिडकियों पर ,,, किताबें सच्ची साथी हुआ करतीं थी ना उन दिनों हाँ ! बस अपने लिए मायने अलग थे और ये एस.एम्.एस. फेसबुक मेल्स भी कहाँ सुलभ थे हमें ! याद है अपने पन्नों के बीच ज्ञान का सागर लिए उन किताबों में एक अल्हड प्यार की कोंपल का फूटना ,,, हाँ बस ऐसे ही शुरू होता था दिन ! हाँ बस ऐसे ही ख़त्म होती है रात !!

सुनो ! तुम्हारे लिए रक्खे हैं कुछ तोहफे ...

सुनो ! तुम्हारे लिए रक्खे हैं कुछ तोहफे ..... जो कभी दिए नहीं गए तोहफे जो उन्ही लिफाफे में रक्खे हैं जिनमें तुम सपने रक्खा करती थीं.. तोहफे जो किन्हीं शामों की विदा निशानी हैं जिनमें समेटी हुई हैं किन्हीं पलों की यादें जो पिघलती जाती हैं परत दर परत रातों की सरगर्मियों में लो ! यादों की गुल्लक से एक और किश्त तुम्हारे लिए.. एक और तोहफा तुम्हारे लिए !!

सच तुम मिलीं ना तो फिर ढूंढ़ लूंगा जिन्दगी !!

किन्हीं रास्तों पे अगर तुम मिलीं ना ! तो सच...... ढूंढ़ लूंगा जिन्दगी इकदम तुम्हारे सपनों जैसी हलकी फुल्की बातों पे गुस्साने वाली और फिर एक टॉफी में मान जाने वाली दिन की थकन अपनी गोद में रखकर छू मंतर कर देने वाली जिन्दगी ... हारते हुए लम्हों में भी सिर्फ होंठों पर हंसी की इक लकीर से विश्व विजेता बना देने वाली जिन्दगी ... हाँ बिलकुल तुम सी तुम्हारे सपनों सी थोड़ी अल्हड थोड़ी मनमौजी जिन्दगी !! सच तुम मिलीं ना तो फिर ढूंढ़ लूंगा जिन्दगी !!

Monday, February 4, 2013

कितनी बार बहाने कितने,,,

कितनी बार बहाने कितने,,, पल पल तुमको ढूंढा पथ में ,,, रोज नए प्रतिबिम्ब बनाये,, मालुम है पर तेरे आगे उपमाएं सब वारी जाएँ,, फिर भी रचने की जिद में मैं,, तुम पर लिखूं तराने कितने ,, कितनी बार बहाने कितने,,, तुम जब मुझसे दूर हुईं ,, दुनिया की गुस्ताख दलीलें दे ,, तब भी हमने था प्रेम लिखा भीगे नयनों में कीलें दे,,, हर बार नयी सुध गीत नए ,, हर बार पीर के ताने कितने ,, कितनी बार बहाने कितने,,

तुम्हारा खत

तुम्हारा खत अब भी बहुत परेशां करता है मुझे,,,,,,,तुम्हारी शिकायतें बातें सब अपना अर्थ खोने के बाद भी ,,,,,,,,,,,,,घूरती रहती हैं मुझे पहरों,,,जैसे किसी जलते हुए रेगिस्तान पर ,,,,,,,गिरती हुई बूँद कोसती हो बादल को,,,,,,,,,,शायद इतना ही देखती है तेरी नाराजगी मुझमें,,,,,,की मैं खुश तो हूँ,,तो क्यों ढोंग करता हूँ तेरी यादों के सामने रोने का,,,,,,,,टूटने का ,,बिखर जाने का,, पर कभी नहीं देख पातीं तेरे खत की घूरती नजरें,,,,,, कि आँखों के सिमटे हुए कोनों में ये हंसी इक नमी के समुन्दर में घुलती रहती है,,,और विस्तारित होती रहती है एक, अंतहीन शून्य में,, नहीं देख पातीं मेरी ऋचाओं का रुदन,,,,,,जो अश्रुहीन है अंतहीन है,, नहीं समझतीं मेरी अभिव्यक्ति कि भाषा ,,,,,जिसकी हर कोंपल अब भी इन आँखों के सूखे जल में फूटती रहती है निरंतर,,, पर एक चीज जो तेरे खतों ने,, तुने समझा है मुझमें वो है मेरा एकाकीपन ,,जो अंतर तक भरा हुआ है मुझमें,, जो इतना खाली है कि अब उसमें कुछ समा नहीं सकता तेरे सिवा ,, तू भी अच्छे से जानती है ,, फिर भी लिखती रहती है खत,, घूरती रहती है चुपचाप सी ,,,शब्दों के शोर के कातर झरोखों से

तुमसे कितनी बार कहा है ,

तुमसे कितनी बार कहा है ,,, कब रोक सकोगी याद मेरी तुम,, मीठी मीठी हर बात मेरी तुम,,, व्यर्थ चाँद को ताने मत दो,, मानो भी कुछ बात मेरी तुम,,, मैं आवारा बादल बन लूँ,, रिमझिम सी बरसात मेरी तुम ,,, ओ सोनजुही की नाजुक लतिका ,, मैंने विरह का आतप अंधड़ तेरे दम ही हर बार सहा है तुमसे कितनी बार कहा है ,

जो तेरे इश्क में सीखे हैं रतजगे मैंने,,,

एक धुंधली हुई तस्वीर कहीं आँखों में,, रोज बनती है उभरती है डूब जाती है,, एक कहानी जो अनजीयी है मुझमे कहीं,, मेरी रातों को रोज सूफिया कर जाती है,, एक खामोश समंदर में सफर करता हूँ,, खुद में पाली हैं यूँ ही कितनी हलचलें मैंने,, ये मेरी तल्ख़ हकीकत है मालुम है मुझे,, जो तेरे इश्क में सीखे हैं रतजगे मैंने,,,, इस भटकती हुई दुनिया में कहाँ जाऊं मैं,, मैंने पूंछा भी नहीं तूने बताया भी कहाँ ,, एक एहसास फकत गाता हुआ सड़कों पर ,, यूँ ही बिकता रहा मैं रोज खिलौनों की तरहा,, ये शोर तालियाँ उल्लास मेरी शोहरत सब,, अपनी मक्कारी में गम कितने छुपाये मैंने, बिन तेरे सब है मगर कुछ भी नहीं है इनमें,, जो तेरे इश्क में सीखे हैं रतजगे मैंने,,,

"मेरी रातों के अवारा साथी

"मेरी रातों के अवारा साथी ,, चुभती आँखों में गहरी नींद लिए,, गगन से ताक रहे हैं मुझको,, मैं भी सो जाऊं ये उम्मीद लिए,, पर मेरी आँखों से नींद भी गायब है रोज की ही तरह ,, फिर वही अक्स परीशां है ,, जो की मुझसा है,, पर अब सोना पड़ेगा ,, मुझको बस उन्ही के लिए ,, जो अब भी झांक रहे हैं ,, मुझे फलक से कहीं,, वो मेरे जैसे नकारा साथी,,, मेरी रातों के अवारा साथी,,,

जो तेरे इश्क में सीखे हैं रतजगे मैंने,,

आज सालों बाद अपने शहर की उन गलियों में जाना हुआ,,,जो कभी हाथों में हाथ लिये दो परछाईयों की आदी थीं ,,,,,,उन गलियों में मिनटों में खत्म हो जाने वाला सफर आज इस एकाकी परछाईं के लिए घंटों में बदल गया ,,,,पता नहीं उन दिनों में तेरे साथ की बेताबी से समय जल्दी बीतता था,,या आज हर कदम पे तुम्हारी यादों की इबारतें मुझसे उन दिनों का हिसाब मांग रहीं थीं ,,,,,,पता नहीं पर उस गली के किनारे वाले इमली के पेड़ पे आज भी एक टूटी हुई कटी हुई पतंग लटक रही थी,,,पर अफ़सोस आज उसकी डोर हाथों में आ जा रही थी ,,,,,,,सच है ना ! सारे मायने ही बदल गये हैं,,, मुझको मालुम है मेरे गीत सभी तेरे हैं,, मुझमें कायम है तेरी रूह का कोई हिस्सा,, सिर्फ और सिर्फ तेरी गूँज है जिन्दा मुझमे,, वो कहानी हो गजल हो या हो कोई किस्सा ,, मेरा तुझपे कोई अधिकार नहीं बाकी अब,, एक एहसान है शायद न चुका पाऊंगा,, तुझको गढता हुआ गीतों में यूँ ही मैं इक दिन,, तेरी यादों में कहीं घुल के ही सो जाऊँगा,,, फिर भी ये सोचता रहता हूँ मैं,,, जब तलक जागूँ,,, मैं जी लूँ तुझे गा लूँ तुझे ,, जाने कब आँखों के कोनों में सिमट जाएँ ये,, जो तेरे इश्क में सीखे हैं रतजगे मैंने,,

वो इन दिनों बहुत याद आता है,,

गीत ..खुशबू ...चित्र कुछ भी आपको आपकी जगह से उड़ाकर ले जाते है ...अतीत की तरफ ..और आप हक्के बक्के रह जाते है अपने दिमाग के storage सिस्टम पर .. :-) वो इन दिनों बहुत याद आता है,, डायरी के पन्नों में साँस लेतीं ,,, पूरी -अधूरी मेरी कविताओं की तरह,, तो कभी नीम पे अटके जुगनुओं की मानिंद ,, मेरी उँगलियों की हरकत और पन्नों के बीच टिमटिमाता हुआ,, वो इन दिनों बहुत याद आता है,, वक्त बे वक्त की बारिशों जैसे ,, खुद में भीगा हुआ,, चांदनी की टूटी किरचनों से ख्वाबों के फलक पर ,, कलाकारियाँ करता हुआ,, पर ,,,,,, वो इन दिनों कम ही याद आता है,, मुझमें कहता हुआ,, और मुझमें कहीं सुनता हुआ,

बस ऐसे ही

छतों पे कांपती हुई अध्कची धूप खिलखिलाकर कर हंस भी नहीं पा रही थी,,,रोशन दानों से झांकती मुलायम किरणें ,,कमरे के अंधेरों में दखल देने में भी संकोच कर रही थी,,,वो क्या है न की मेरे कमरे में अक्सर सुबह के वक़्त ख्वाब ही टहला करते हैं,,,उनकी सघनता को भेद पाना इन किरणों के बस की बात नहीं ,,,,पर आज सुबह अचानक से ये रश्मियाँ खिलखिलाकर बरस पड़ीं उन्ही रोशन दानों से ,,,,,,,,,बस ऐसे ही बिल्कुल उदास बच्चे की सूरत था कल तलक ! तुम आये क्या की शहर का मौसम बदल गया !!.......munnavar rana

राधे ! तुम बिन सब सूना है

राधे ! तुम बिन सब सूना है , अब भी कालिंदी के तट क्या लहरों के गुंजन होते हैं ? अब भी नेह वेह के मारे चकवों के क्रंदन होते हैं ? अब भी क्या पपिहों के हित कोई स्वाति बूँद बन आ जाती है ? अब भी क्या किरणों की देह धर मेरी छवि नयन जुड़ा जाती है ? हाँ सब तो होता होगा पर बंसी की धुन तुम बिन चुप है साँसों से गुंजित तान अमर तुम बिन इन साँसों में गुम है सुनता हूँ मेरे रूप बहुत हैं पर ये भेद बताये कौन , ब्रज में अब भी प्राण पड़े हैं देहों का जमघट सूना है ! राधे ! तुम बिन सब सूना है

एक शाम की विदा निशानी !

एक शाम की विदा निशानी ! व्याकुल नयनों की बेताबी पीपल के सायों में संहित आती जाती पतली गलियों के नुक्कड़ के आमों में संचित , नयी पुरानी कच्ची पक्की रस्मों कसमों वाली गठरी टेढ़ी मेढ़ी -- सीधी सादी सपनों वाली नाजुक टहनी , कभी लिखी जो गयी प्राण पर तेरी साँसों से अमर कहानी ,, अब तक जिससे गीत बने वो एक शाम की विदा निशानी !!

एक और खाली दिन ,,एक और भारी शाम,,,

एक और खाली दिन ,,एक और भारी शाम,,,,, जानती हो मेरे दोस्त बहुत कहते हैं मुझसे,,, कि मेरी हर रचना में तुम नजर आती हो,,,जैसे मेरा खुद का कोई अस्तित्व ही नहीं अपनी ऋचाओं में ,,,हर शब्द हर बंद बस तेरी ही खुशबुओं से भरा रहता है,,,,,,,,शायद ये सच मैं भी जानता हूँ मगर मानना नहीं चाहता ,,,क्यूंकि खुद को तो कब का घुला डाला है तुझमें,,,,,,और फिर तू ही तो हर सांस में महसूस होती है,,,तो फिर कैसे अलग हो सकता है तुझसे ,,,,,,,,मेरे कंठों का निर्मम उदगार ,,, आज दिन से ही सोच रहा था कि आज तो नहीं लिखूंगा तुझ पर ,,,,चाहे कुछ भी हो जाये,,,,,मन को भी शख्त हिदायत दे रक्खी थी,,,कि पिघलना नहीं ,,, जब शाम को लिखने बैठा तो सोचा कि आज कोई हास्य रचना लिखूं,,,तो ढूंढने लगा खुद में वो उन्मुक्त हंसी ,,,,जो तेरी छोटी-छोटी नादानियों पर आ जाया करती थी,,,,जो दिन भर कि थकन के बाद भी सिर्फ एक बार तुझे देख लेने पर ऐसे खिलखिला पड़ती थी,,,मानो आज का दिन सबसे अच्छा गुजरा हो,,,,,, बहुत देर तक तलाश करता रहा पर कहीं नहीं मिली,,,,,,फिर सोचा तूने कहीं छुपा कर रख दी होगी,,,,,,,,, ,,,तेरी आदत भी तो थी कि अपनी हंसी को गुमाकर,, मुझसे घंटों ढुढवाया करती थी,,,,, और फिर मेरी उटपटांग हरकतों के बीच अचानक गूंज पड़ती थी तेरी खिलखिलाहट ,,,,, जैसे बरसों से तपती जमीन पर बादलों को अचानक से दया आती है और बरस पड़ते हैं,,,सब कुछ भूल कर,,,,,,, पर आज इतने सालों बाद तेरी वो हंसी मिल नहीं रही थी मुझे ,,,(यूँ तो तू आज भी हँसती होगी,,,पर जानता हूँ कि अब की तेरी हंसी ,,,,,,,मोल है उन समझौतों का जो हमें करने पड़े),,,, काफी देर तक उलझा रहा उस हंसी को खोजने में ,,,,,, पर आज फिर तू समा गयी मेरी कलम में ,,,,, आज फिर एक हास्य कविता सिर्फ भूमिका में ही दफ़न हो कर रह गयी,,,,,अपने अनसुलझे सपनों की तरह,,

bas aise hi

शामों के एकाकी चाँद के साथ-साथ मुझमें घुलतीं अकेलेपन की गिरहों में तेरी यादें इस कदर बंध जायेंगी किसे पता था,,ऐसी ही एक शाम में अपने एकाकीपन से जूझते हुए,,बड़ी शिद्दत से दिल कर रहा है कि कोई जोर से डाट दे,,,,,,,,,,,,,, और मेरी खामोश आवारगी का शीशा झन्न की आवाज के साथ टूट जाए .......... हाँ बस ऐसे ही शुरू होता था दिन ! हाँ बस ऐसे ही ख़त्म होती है रात !! कोहरे वाली सुबहें ही थीं ना अक्सर यूँ ही पढ़ते - पढ़ते नजर पड़ जाती थी सामने के बारजे पर,,याद है मुझे उन घनी धुंध वाली सुबहों में भी खिड़की पे एक चाँद रक्खा रहता था ,, महसूस कीं थी मैंने उन सर्द रातों में भी कुछ गर्मी केवल उन्ही खिडकियों पर ,,, किताबें सच्ची साथी हुआ करतीं थी ना उन दिनों हाँ ! बस अपने लिए मायने अलग थे और ये एस.एम्.एस. फेसबुक मेल्स भी कहाँ सुलभ थे हमें ! याद है अपने पन्नों के बीच ज्ञान का सागर लिए उन किताबों में एक अल्हड प्यार की कोंपल का फूटना ,,, हाँ बस ऐसे ही शुरू होता था दिन ! हाँ बस ऐसे ही ख़त्म होती है रात !!