Monday, February 4, 2013
एक और खाली दिन ,,एक और भारी शाम,,,
एक और खाली दिन ,,एक और भारी शाम,,,,,
जानती हो मेरे दोस्त बहुत कहते हैं मुझसे,,, कि मेरी हर रचना में तुम नजर आती हो,,,जैसे मेरा खुद का कोई अस्तित्व ही नहीं अपनी ऋचाओं में ,,,हर शब्द हर बंद बस तेरी ही खुशबुओं से भरा रहता है,,,,,,,,शायद ये सच मैं भी जानता हूँ मगर मानना नहीं चाहता ,,,क्यूंकि खुद को तो कब का घुला डाला है तुझमें,,,,,,और फिर तू ही तो हर सांस में महसूस होती है,,,तो फिर कैसे अलग हो सकता है तुझसे ,,,,,,,,मेरे कंठों का निर्मम उदगार ,,,
आज दिन से ही सोच रहा था कि आज तो नहीं लिखूंगा तुझ पर ,,,,चाहे कुछ भी हो जाये,,,,,मन को भी शख्त हिदायत दे रक्खी थी,,,कि पिघलना नहीं ,,,
जब शाम को लिखने बैठा तो सोचा कि आज कोई हास्य रचना लिखूं,,,तो ढूंढने लगा खुद में वो उन्मुक्त हंसी ,,,,जो तेरी छोटी-छोटी नादानियों पर आ जाया करती थी,,,,जो दिन भर कि थकन के बाद भी सिर्फ एक बार तुझे देख लेने पर ऐसे खिलखिला पड़ती थी,,,मानो आज का दिन सबसे अच्छा गुजरा हो,,,,,,
बहुत देर तक तलाश करता रहा पर कहीं नहीं मिली,,,,,,फिर सोचा तूने कहीं छुपा कर रख दी होगी,,,,,,,,,
,,,तेरी आदत भी तो थी कि अपनी हंसी को गुमाकर,, मुझसे घंटों ढुढवाया करती थी,,,,,
और फिर मेरी उटपटांग हरकतों के बीच अचानक गूंज पड़ती थी तेरी खिलखिलाहट ,,,,,
जैसे बरसों से तपती जमीन पर बादलों को अचानक से दया आती है और बरस पड़ते हैं,,,सब कुछ भूल कर,,,,,,,
पर आज इतने सालों बाद तेरी वो हंसी मिल नहीं रही थी मुझे ,,,(यूँ तो तू आज भी हँसती होगी,,,पर जानता हूँ कि अब की तेरी हंसी ,,,,,,,मोल है उन समझौतों का जो हमें करने पड़े),,,,
काफी देर तक उलझा रहा उस हंसी को खोजने में ,,,,,,
पर आज फिर तू समा गयी मेरी कलम में ,,,,,
आज फिर एक हास्य कविता सिर्फ भूमिका में ही दफ़न हो कर रह गयी,,,,,अपने अनसुलझे सपनों की तरह,,
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