Monday, February 4, 2013

तुम्हारा खत

तुम्हारा खत अब भी बहुत परेशां करता है मुझे,,,,,,,तुम्हारी शिकायतें बातें सब अपना अर्थ खोने के बाद भी ,,,,,,,,,,,,,घूरती रहती हैं मुझे पहरों,,,जैसे किसी जलते हुए रेगिस्तान पर ,,,,,,,गिरती हुई बूँद कोसती हो बादल को,,,,,,,,,,शायद इतना ही देखती है तेरी नाराजगी मुझमें,,,,,,की मैं खुश तो हूँ,,तो क्यों ढोंग करता हूँ तेरी यादों के सामने रोने का,,,,,,,,टूटने का ,,बिखर जाने का,, पर कभी नहीं देख पातीं तेरे खत की घूरती नजरें,,,,,, कि आँखों के सिमटे हुए कोनों में ये हंसी इक नमी के समुन्दर में घुलती रहती है,,,और विस्तारित होती रहती है एक, अंतहीन शून्य में,, नहीं देख पातीं मेरी ऋचाओं का रुदन,,,,,,जो अश्रुहीन है अंतहीन है,, नहीं समझतीं मेरी अभिव्यक्ति कि भाषा ,,,,,जिसकी हर कोंपल अब भी इन आँखों के सूखे जल में फूटती रहती है निरंतर,,, पर एक चीज जो तेरे खतों ने,, तुने समझा है मुझमें वो है मेरा एकाकीपन ,,जो अंतर तक भरा हुआ है मुझमें,, जो इतना खाली है कि अब उसमें कुछ समा नहीं सकता तेरे सिवा ,, तू भी अच्छे से जानती है ,, फिर भी लिखती रहती है खत,, घूरती रहती है चुपचाप सी ,,,शब्दों के शोर के कातर झरोखों से

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