छतों पे कांपती हुई अध्कची धूप खिलखिलाकर कर हंस भी नहीं पा रही थी,,,रोशन दानों से झांकती मुलायम किरणें ,,कमरे के अंधेरों में दखल देने में भी संकोच कर रही थी,,,वो क्या है न की मेरे कमरे में अक्सर सुबह के वक़्त ख्वाब ही टहला करते हैं,,,उनकी सघनता को भेद पाना इन किरणों के बस की बात नहीं ,,,,पर आज सुबह अचानक से ये रश्मियाँ खिलखिलाकर बरस पड़ीं उन्ही रोशन दानों से ,,,,,,,,,बस ऐसे ही
बिल्कुल उदास बच्चे की सूरत था कल तलक !
तुम आये क्या की शहर का मौसम बदल गया !!.......munnavar rana
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