राधे ! तुम बिन सब सूना है ,
अब भी कालिंदी के तट क्या
लहरों के गुंजन होते हैं ?
अब भी नेह वेह के मारे
चकवों के क्रंदन होते हैं ?
अब भी क्या पपिहों के हित
कोई स्वाति बूँद बन आ जाती है ?
अब भी क्या किरणों की देह धर
मेरी छवि नयन जुड़ा जाती है ?
हाँ सब तो होता होगा पर
बंसी की धुन तुम बिन चुप है
साँसों से गुंजित तान अमर
तुम बिन इन साँसों में गुम है
सुनता हूँ मेरे रूप बहुत हैं
पर ये भेद बताये कौन ,
ब्रज में अब भी प्राण पड़े हैं
देहों का जमघट सूना है !
राधे ! तुम बिन सब सूना है
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